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शब्दों का मह्जाल से घिरा हों


शब्दों का मह्जाल से घिरा हों

शब्दों का मह्जाल से घिरा हों 
लेखनी से मै इस तरह जोड़ा हों 
आज तक नदी बन फिर रहा था
आज जाके सागर से मिला हों 

पतझड़ हो या सावन निर्झर हो या मधुबन 
बण बण फिर था रहा मेर मण प्रतीश्रण 
विकल ओर विफल ना सूझे कोई विकल्प 
कल्पतरु सा था मरुस्थल जहँ था जल विहल 

अनत अवरीत अचल था अटल वो छल बल 
पल पल पग परिवर्तन के प्रवर्तित से पेरित 
अपने ही ग्रहण से गहारीत गमन से गाछीत
वेदों से वंचिंत विरल विपरीत वर्णन से वरहित 

संकोचित समर्पण समधान से अपमानीत 
अवमानीत से ताडीत मन पटल पर पाडीत 
स्वछेद सरलीत सरल सम्पन सुखद समर्पण 
पलव से पालीत पुष्प से गुंदीत गुल से गुछित 

वेदना से वर्णीत विरोह मै विमोचन 
विशालकय विपरीत विरम से आछदित 
आकश मै अवरोहीत भूमी मै संग्रहीत 
कल कल बहती नदी सागर मै हो विमोडीत

शब्दों का मह्जाल से घिरा हों 
लेखनी से मै इस तरह जोड़ा हों 
आज तक नदी बन फिर रहा था
आज जाके सागर से मिला हों 

मेरी कविता समर्पण हेतु अवतरीत होयी है 

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत 

बालकृष्ण डी ध्यानी
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