परछाई मेरी हरजाई
एक रात सो जब उठा
यंह वंह देखा पर कुछ ना समझ सका
थोडा सोचा सकुच्या और खुद से झलाया
और मै आगे की ओर बढ़ गया
रवी की किरणे आज भी प्रकाशीत थी
ओ भोर उलह्सीत थी फिर भी क्यों लग रह ?
कोई मुझे यूँ छुड गया फिर मै नै सोचा
पर फिर भी मै समझ ना सका
और मै आगे की ओर बढ़ गया
चीडीयूँ चह चाहतै ओ वकत गया
कुछ समय पश्चात दिन दोपहर होआ
आस पास मेरे कुछ शोर सा होआ
शक तो होआ पर मन कहीं और गया
और मै आगे की ओर बढ़ गया
कुछ पल यंहा वंह टहल कर समय व्यतीत होआ
दूजे पल संध्या का आगमन होवा
लाली थी असमान पर छायी
कुछ पल बाद रोशनी की होनी थी विदाई
फिर भी मेरे बात समझ ना आयी
और मै आगे की ओर बढ़ गया
अंधकार नै आपनी चादर फैलाई
वो रात चुप चुपके मेरे अस्तीत्व मै आयी
तब जाके मेरी बात समझ मै आयी
जब परछाई मेरी यूँ अंधेरे मै जाके समाई
शरीर मेर अग्नी से माँगा रही थी दुहाई
आत्म मेरी थोड़ी सकुचाई
एक नई रह पर अपने कदम बडयी
और मै आगे की ओर बढ़ गया
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत
बालकृष्ण डी ध्यानी
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