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अलबेला



अलबेला 

गाज गिरी दमनी सी 
चमकल गमनी सी 
बाहय बहै धमनी सी 
जल विरह कमनी सी 

अछाधीत विरह का 
गछाधीत वो प्रेम था 
विलक्षण आभा सी 
कांती का वो केद्र था 

एक नयी रचना का 
संजोग सा मेल था 
विश्व रचयेता का 
रचाया सा खेल था 

गुल के संग खिला 
काटों क वो रेल था 
खड़ा खड़ा ही रहा मै
अचम्भीत वो सेज था 

बातों मै फंसा वो अकेला था
सुली पर चड़ा एक झमेला था 
कवी वो बड़ा अलग अलबेला था 
सात रंगों का देखो कैसा मेला था 

गाज गिरी दमनी सी 
चमकल गमनी सी 
बाहय बहै धमनी सी 
जल विरह कमनी सी 

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत 


बालकृष्ण डी ध्यानी 
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