बस चाकरी मेरे मन की
बस चाकरी मेरे मन की
दुःख दर्द और मेरे तन की
बस चाकरी मेरे मन की
रूठ ते उस मेरे मधुबन की
और टूटते उस मेरे वन की
बस चाकरी मेरे मन की
खाली होते मेरे यौवन की
इतंजार करते मेरे जौबन की
बस चाकरी मेरे मन की
बंजर हो रहे मेरे धरा की
खत्म हो रहे मेरे चौसठ कला की
बस चाकरी मेरे मन की
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
1 टिप्पणियाँ
पहली चाकरी मन की ही होती है ...एक अच्छी कविता। सुंदर प्रस्तुतिकरण।
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