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चाँद की पेशानी मे भी


चाँद की पेशानी मे भी

चाँद की पेशानी मे भी..... इक  दाग है
खूबसूरत हैं वो पल जब तो साथ साथ है
मेरे रहबर मेरे हम-नशीं
तू गर साथ है  हमसफ़र जन्नत  है ये जमीं

आँखें क्यों फिर डब-डबा जाती हैं
किस लिए वो  सकपका जाती हैं
.... जाने क्यों ? .... जाने क्यों
सकुचा जाती हैं....नीर बहाते बहाते ..............

किस काम की ऐसी  पढ़ाई लिखाई
कुछ भी करलो पलकों पर रह जाता है खारा पानी
उम्र गई  बस उम्र गई  पछताते .....पछताते

फिर भी तलब मेरी उठ आती है
नाज़ुक है लम्हा, कंधा खोज जाती है
सहारा लेती है देती है बीती बातों का
फिर पुरानी यादों संग वो खो जाती है

चाँद की पेशानी मे भी.....................

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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