थड़िया लोक नृत्य
प्रेम, लगाव एवं सहयोग की सामूहिक विरासत ,
उत्तराखंड के गढ़वाल अंचल का भूगोल जितना आकर्षक है, उतनी ही मनोहारी हैं यहां की लोक परंपराएं। ऐसा भी कह सकते हैं कि गढ़वाल की लोक संस्कृति, यहां के लोग और प्रकृति एक-दूसरे में समाए हुए हैं। इसकी झलक यहां के लोकगीत व लोकनृत्यों में स्पष्ट देखी जा सकती है। गढ़वाल के लोक वाद्य, लोक गीत, लोक नृत्य और शिल्प इतने समृद्ध हैं कि उनमें डूब जाने को मन करता है। खासकर यहां के गीत-नृत्यों में तो कमाल की विविधता और आकर्षण है। ऐसे ही एक प्रसिद्ध पारंपरिक गीत-नृत्य से हम आपका परिचय करा रहे हैं, जिसे थड़िया कहा जाता है। हालांकि, तेज रफ्तार जिंदगी में नई पीढ़ी इस पारंपरिक नृत्य से बहुत दूर चली गई है, लेकिन अंतराल के गांवों में थड़िया नृत्य आज भी उसी उत्साह से होता है, जैसा तीन दशक पूर्व तक हुआ करता था।
'थाड़' से हुई 'थड़िया' की उत्पत्ति
'थड़िया' शब्द की उत्पत्ति 'थाड़' से हुई है, जिसका अर्थ है आंगन या चौक। थोड़ा बड़े अर्थों में इसे खलिहान भी बोल सकते हैं। यानी घर के आंगन में आयोजित होने वाले संगीत और नृत्य के उत्सव को थड़िया कहा जाता है। थड़िया उत्सव का आयोजन वसंत ऋतु में घरों के आंगन में किया जाता है। वसंत में रातें लंबी होती है, इसलिए गांव के लोग मनोरंजन के लिए मिल-जुलकर थड़िया का आयोजन करते हैं।
मंडाण का पूरक नहीं है थड़िया नृत्य
कुछ लोग मंडाण को थड़िया नृत्य का पूरक मानते हैं, जबकि दोनों नृत्य एक-दूसरे से भिन्न हैं। दरअसल, थड़िया नृत्य में जहां गांव के सभी लोग मिलकर गायन और नृत्य की जिम्मेदारी लेते हैं, वहीं मंडाण में गीत गाने और वाद्य यंत्रों का संचालन करने वाले विशेष लोग होते हैं, जिन्हें औजी (दास) कहा जाता है। बाकी लोग नृत्य में साथ होते हैं। मंडाण की एक विशेषता यह भी है कि इस आयोजन में शामिल होने के लिए गांव की ब्याहता बेटियों को भी मायके आमंत्रित किया जाता है।
इस दौरान मनोहारी गीतों और तालों के साथ गांव के लोग कदम-से-कदम मिलाकर नृत्य का आनंद लेते हैं। जबकि, थड़िया नृत्य के साथ-साथ प्रेम, लगाव व सहयोग की सामूहिक विरासत को संजोए हुए है।
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