
उत्तराखंड सरकार ने कहानी को पाठ्यक्रम से हटा लिया है
जाति व्यवस्था और उसके शोषण को उजागर करने वाली प्रेमचंद की कहानी 'दूध का दाम' उत्तराखंड में नहीं पढ़ाई जाएगी.
राज्य सरकार ने इस कहानी में इस्तेमाल में लाए गए कुछ जाति सूचक शब्दों पर विवाद होने के बाद इस पर पाबंदी लगाने और पाठ्यक्रम से हटाने का फ़ैसला किया है.
लेकिन ये विवाद थमा नहीं है और साहित्य जगत में सरकार के इस कदम का कड़ा विरोध किया जा रहा है.
हिंदी साहित्य में प्रेमचंद पहले ऐसे लेखक माने जाते हैं जिन्होंने दलित शोषण पर कलम उठाई लेकिन आज करीब सौ साल बाद उनकी भाषा और नीयत पर उंगलियाँ उठाई जा रही हैं.
प्रेमचंद की कहानी 'दूध का दाम' मंगल नाम के एक दलित बच्चे के बारे में है जो गाँव के ठाकुर के घर की जूठन पर पलता है.
असली मुद्दा जाति-व्यवस्था है न कि जाति का नाम. जब जाति के प्रमाणपत्रों पर चमार, धोबी, भंगी जैसे जाति सूचक शब्द लिखे जा रहे हैं तो उन्हें क्यों नहीं जलाया जाता. ये कदम प्रेमचंद के पूरे साहित्य को चुनौती देने जैसा है. यह साहित्य के नाम पर राजनीति है
ओमप्रकाश वाल्मीकि, साहित्यकार
मंगल की माँ गाँव की दाई है और ठाकुर के बच्चे सुरेश को भी उसने अपना दूध पिलाकर पाला है.
लेकिन बड़ा होने के बाद सुरेश उसी मंगल से छुआछूत का बर्ताव और शोषण करने लगता है जिसकी माँ के दूध पर वो खुद पला था.
इस कहानी में 'भंगिन' जैसे कुछ शब्दों का इस्तेमाल हुआ है जिस पर आपत्ति जताई गई.
इस कहानी पर विरोध जताते हुए वाल्मीकि समाज के प्रतिनिधियों ने मुख्यमंत्री को ज्ञपन दिया और कई मंचों पर इसका विरोध किया गया.
वाल्मीकि समाज के एक नेता सूरज टम्टा का कहना है कि इस कहानी से दलितों का अपमान होता है और इस कहानी की 'भाषा भ्रष्ट है'.
उनका कहना है, "अगर आज बच्चे ऐसी भाषा बोलने लग जाएँ तो इसका बुरा असर पड़ेगा."
ये कहानी 11वीं कक्षा की हिंदी की किताब 'आरोह' में शामिल है जिसे एनसीईआरटी ने प्रकाशित किया है और इसे प्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों में पढ़ाया जा रहा था लेकिन अब इसे नहीं पढ़ाया जाएगा.
राज्य के शिक्षा मंत्री मदन कौशिक कहते हैं, "इस कहानी में जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया है उसके ख़िलाफ़ जैसा वातावरण बन रहा था उसमें यही उचित है कि इस कहानी को पाठ्यक्रम से हटा दिया जाए."
विरोध
प्रेमचंद की कृतियों पर पहले भी विवाद होता रहा है
लेकिन साहित्यिक हलकों में सरकार के इस कदम का कड़ा विरोध किया जा रहा है.
मशहूर दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं, "असली मुद्दा जाति-व्यवस्था है न कि जाति का नाम. जब जाति के प्रमाणपत्रों पर चमार, धोबी, भंगी जैसे जाति सूचक शब्द लिखे जा रहे हैं तो उन्हें क्यों नहीं जलाया जाता. ये कदम प्रेमचंद के पूरे साहित्य को चुनौती देने जैसा है. यह साहित्य के नाम पर राजनीति है."
देहरादून में रहने वाले साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि लीलाधर जगूड़ी का कहना है, "ये सामाजिक इतिहास को समझने की भूल और साहित्य पर हमला है. सरकार को साहित्य की क्या समझ है?"
वो आगे कहते हैं, "अगर प्रेमचंद के पात्र जातिसूचक शब्द या गालियों का प्रयोग करते हैं तो ये उस समय के समाज के व्यावहारिक पतन को दिखाता है और ये शब्द उस समय की बोलचाल के अभिन्न हिस्से थे."
उनका कहना है, "जहाँ तक उन बच्चों की बात है जिनके हित-अहित की बात उठाई जा रही है तो ऐसा लगता है कि बच्चे कहानी का मर्म समझने के साथ-साथ सही और ग़लत की समझ भी रखते हैं."
मसूरी के इंटर कॉलेज में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रहे पवन का कहना है, "ये कहानी दिखाती है कि सिर्फ ऊँची जाति की वजह से ही एक लड़का उस औरत से दुर्व्यवहार करता है जिसका उसने दूध पिया है."
तीन साल पहले दिल्ली में प्रेमचंद की कुछ कहानियों और शब्दों पर विवाद होने के बाद उनकी रचनाएँ जलाई गई थीं.
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