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दो छोर


दो छोर

नदी के दो छोर संग संग 
कितने अलग कितने दुर
बांधे एक दुजे को पतली डोर 
एक इस ओर दूजा उस ओर 
नदी के दो छोर....................

सागर पर मै मची हलचल 
लहरें आती मचल मचलकर 
पल पल बदल बदल कर 
अटखेली लेती उछाल उछालकर 
सागर के दो छोर....................

सूरज चाँद के देहली पर 
हर पल एक नयी पहेली 
उजाले अंधरे मै ही छिपी 
दोनों संग हैं पर बिछाडी सहेली 
प्रक्रति के दो छोर ....................

प्यार ओर बेवफाई का 
हर दिन एक नया दस्तूर 
ना मेरा कसूर ना तेरा कसूर
ये तु मोहब्बत का सरुर
प्रेम के दो छोर ..........................

जीवन मै देखो कैसा आया मोड़ 
एक छोर छुड़ने के बाद ही आता है दूसरा मोड़ 
काठनाईयुं और दुःख छुड़तै आयी सुख की भोर
हो ना जाओं मै भवह विभोर हे आत्म 
जीवन और मरण की थी वो डोर............

नदी के दो छोर संग संग 
कितने अलग कितने दुर
बांधे एक दुजे को पतली डोर 
एक इस ओर दूजा उस ओर 
नदी के दो छोर....................

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत 

बालकृष्ण डी ध्यानी
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