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बिरहा


बिरहा 

कुछ छुना चाहों तो छुना पाऊँ 
दिल कैसे समझाओं 
ब्वारै मन को कैसे मनाओं 
इस तडपन कैसे छुपाओं
कुछ छुना चाहों तो छुना पाऊँ .....

बीते पल की बिरहा संग 
उचाट हो जाता ये तन 
यादों की नश्तर की चुबन 
चुभता रहता है यह बदन 
कुछ छुना चाहों तो छुना पाऊँ .....

रातभर गिरती रहती है 
पलकों पर आँखों की शबनम 
जलते हो ये चाँद पर बदली 
जैसै उठती है मरहम बनकर 
कुछ छुना चाहों तो छुना पाऊँ .....

कसका उभरती है विचारों की 
पेशानी पर रेखा बन बनकर 
सिकोड़ जाती है ये जवानी 
बस साजना की राहतक कर 
कुछ छुना चाहों तो छुना पाऊँ .....

कुछ छुना चाहों तो छुना पाऊँ 
दिल कैसे समझाओं 
ब्वारै मन को कैसे मनाओं 
इस तडपन कैसे छुपाओं
कुछ छुना चाहों तो छुना पाऊँ .....


बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत 


कवी बालकृष्ण डी ध्यानी 
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