बेजान
बेजान होआ आदमी
मुख्तसर सा वो फिर रहा वो फिर रहा
बेजान होआ आदमी....................
उठा उठा वो तब से बुझा सा लगा
सवेरा से अपने आप मे वो झुका सा लगा
बेजान होआ आदमी....................
कटा कटा सा वो आगे बड़ा सा लगा
अपनी ही सोच मे वो उलझा सा लगा
बेजान होआ आदमी....................
फंसा फंसा सा वो उसे अब लगा रहा
परेशानी मे घिरा वो जग अब हंस रहा
बेजान होआ आदमी....................
बेजान,उठा,कटा,फंसा सा वो आदमी
शाम की तरंह अब वो भी ढल रहा
बेजान होआ आदमी....................
बेजान होआ आदमी
मुख्तसर सा वो फिर रहा वो फिर रहा
बेजान होआ आदमी....................
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत
बालकृष्ण डी ध्यानी
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