वो दिल
दिल ही था
जिसने प्रेम का खेल खेला था
मुझे प्रेम के शिकंजे में घेरा था
वो दिल ही था
मर्म जो उभरा था उस कोने में
आँखों का वो फेरा था
रुक रुक कर उठी थी वो पलक
जिसमे अब आंसूं का बस बसेरा था
सांसों ने मचाया था शोर कभी
जुबाँ ने चुप-चाप सिर हिलाया था
कदमों ने अपना रास्ता बनया था
खुद को कंही मैंने विरानो में छुपाया था
वो दिल ही था
जिसने प्रेम का खेल खेला था
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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