खोया इंसान
फिर दिल खोया सा
इंसान फिर सोया सा
दर्द है की लकीर खिंच रही है
अबला तड़प रही है
तंत्र भ्रष्ट जन त्रस्त
वासना की अग्न सर्वत्र
समाज खड़ा भिन्न
हर आत्म आज खिन्न
मूक है सब जन
उपवन बना ये जंगल
भेड़ीयों का राज है
इंसानीयत अब लाचार है
रोज किस्से अपने हिस्से
नेता ढीट सिपै बेशर्म
कुकर्म आत्यचार पीड़ित
पैंसे ही अब यंहा हँसते
फिर दिल खोया सा
इंसान फिर सोया सा
दर्द है की लकीर खिंच रही है
अबला तड़प रही है
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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