अब भी वो पड़े हैं इन्तजार में
फिर आज बड़े दिनों के बाद
आज फिर मैंने कलम थामी है
कोई रचना कोई नज्म जमी थी
उस टूटे और सूखे पत्तों पर
अब भी वो पड़े हैं इन्तजार में
उड़ रही धुल वंही पड़ी मजारों पर
रुक्सत हुये दरकत के रुक्सारों पर
कब्र पर छाये उन अंधेरों गलियारों पर
कभी जलते दीपक के उन किनारों पर
अब भी वो पड़े हैं इन्तजार में
देख रही है राह आयेगा कोई यंहा
चुन-चुनकर कोई यंहा से ले जायेगा
जो रचना नज्म जमी थी अब तक यंहा
इन अनजान सुनसान वीरानों पर
अब भी वो पड़े हैं इन्तजार में
फिर आज बड़े दिनों के बाद
आज फिर मैंने कलम थामी है
कोई रचना कोई नज्म जमी थी
उस टूटे और सूखे पत्तों पर
अब भी वो पड़े हैं इन्तजार में
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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