अब भी दरारें बाकी हैं
अब भी दरारें बाकी हैं
उस किसी कोने में
अब भी आहट आती है
उस तकिये पर सोने में
अब भी दरारें बाकी हैं ...............
कोई सुने ना सुने
वो तो बोल रहा है
किसी ना किसी कोने में
वो अब भी रो रहा है
अब भी दरारें बाकी हैं ...............
रात दिन था इन्तजार
अब भी उसी कोने को
अब भी बैठा होगा वो
मिल जायेगा उस कोने में
अब भी दरारें बाकी हैं ...............
कैसी तड़प बाकी उस कोने को
तन्हाई से यूँ रूबरू होने को
प्यास ही बची अब उस कोने में
अब क्या पाना है और क्या खोने में
अब भी दरारें बाकी हैं ...............
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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