अपनों में ही
अपनों के बीच कसक है
कैसी ये झड़प है ध्यानी
नजरों में ही जब रस्क है
भूख की ये बस चमक है
क्या ये ही गंगा नगरी है
क्या ये ही वो देव नगरी
बस बडती दिखती मज़बूरी है
ना घटती ये कैसी दूरी है
सुंदर फैला था कभी ये उपवन
आज मैला हुआ हर मन है
कहते हैं कमा ले अभी तो
कंहा आता गया जो कल है
आँसूं की रेखा है फ़ैली
निकली है हर गाँव गली
पहाड़ों को ना इल्जाम दो
कभी अपने अंदर झांक लो
सब पता चल जायेगा
ज्याद ना देख भेद खुल जायेगा
आँख ना मीला सकेगा अपनों से
कैसे जीयेगा उन सपनो में
कैसे जीयेगा उन सपनो में
कैसे जीयेगा उन सपनो में
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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