पर्वत सिखाते
पर्वत सिखाते सर उठा कर जीने को
ना ही सर झुका कर यंहा से भाग जाया करो
सुख दुःख जीवन है माना यंहा रहकर हमने
दूर से ना अब तुम हम पर उंगलियां उठया करो
पहाड़ी जीवन बड़ा कठिन है जीना यंह पर समझे
हवाओं में ना तुम यूँ ना अब हमारी बात उड़ाया करो
सवेरे शाम रात आती हैं यंहा पर भी देख लो
हम से अब यूँ ना तुम अपनी आँखें चुरया करो
ऐसे हमसफ़र से अब मुलकात ही कम हो
जिसके लिए मेड पर हरपल आँखें बिछानी पड़े
चॉद सूरज मन्जिल पाने चाला वो जिस राह पर
ऐसे राहों को क्यों कर अब हम पुकारा करें
घर उसी का सही क्या तुम भी हकदार हो
यंहा आकर अब अपने पहाड़ को अपनाया करो
पर्वत सिखाते सर उठा कर जीने को
ना ही सर झुका कर यंहा से भाग जाया करो
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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