कविता प्रेम कि
कविता प्रेम कि
इस तरह आगाज हुयी
पहली बार
आँखों से चार हुयी
दिल के पार हुयी
कविता प्रेम कि
नजरों से पड़ी मैंने
अपनों परायों से
घड़ी सी जुडी रही
करती वो टिक टिक
कविता प्रेम कि
ना रंग है उसका
ना उसका कोई रूप है
भा जाता है सबको
उसका वो स्वरुप है
कविता प्रेम कि
अंजाना रिश्ता वो
बढ़ जाता पल पल
एक अनंत विश्वास
उस भ्रमांड पार भी
कविता प्रेम कि
आओ जोड़े उस सार से
इस भवसगार प्यार से
करे सार्थक अब अपना
प्रेम इस संसार से
कविता प्रेम कि
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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