अब ऊँगली उठाना
अब ऊँगली उठाना बड़ा आसान हो गया
ध्यानी वो मेरी एक अब पहचान बन गया
शीशे के मकानो से घिरा था अपने मै
शीशा चटका मेरे सर वो इल्जाम आ गया
दूर वंह पर धुँआ उठा रहा अब कभी कभी
शमशान बुझा है अब रखों का नाम आ गया
बस मुंह खोल देते हैं बिना सोचे समझे
हमने बोल दिया तो वो सरेआम हो गया
अब तो महफिल सजती है इनकी ही
हमने महफिल सजाई वो वीरान हो गया
अब ऊँगली उठाना बड़ा आसान हो गया
ध्यानी वो मेरी एक अब पहचान बन गया
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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