कचोटता है मुझे
पहाड़ों का सूनापन
कचोटता है मुझे
वो करता है अब मुझे
कुछ लिखने को मजबूर
सूनी गलियां
सूने खेत खलिहान
सूने मन सूनी पहचान
सून होकर मांग रहा वो हक
खड़ा है वो चुपचाप
अनगिनत हाथ थे वो अब लुप्त
कंहा लगये वो अकेला पुकार
सदियों से वो खड़ा उजाड़
नदियां सुख रही है
धरती हो रही बंजर
वन रिक्त,खो रहे कंकड़
सूना है वो अब अपनों को खोकर
चलता रहेगा ऐसे गर
वो कचोटेगा अब तेरे दिल मकान
लेगा तुझसे तेरे जाने का हिसाब
अकेला जब तू खुद को पायेगा
पहाड़ों का सूनापन
कचोटता है मुझे
वो करता है अब मुझे
कुछ लिखने को मजबूर
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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