हैरान हूँ परेशान हूँ मै
हैरान हूँ परेशान हूँ मै
जंहा भी जाऊं निराश हूँ
प्रातःकाल अब भी अंधेरा अँधेरा है
जाने सूरज मेरा कंहा छुप गया है
सब चुप चुप है
अपने मुख से सब विमुख है
शब्द खोये खोये यंहा
मेरे अक्षर धूल में सोये हुये है
हैरान हूँ परेशान हूँ मै
जंहा भी जाऊं निराश हूँ
दोपहरा की गर्मी शांत नहीं होती
शाम की संध्या अब तो तपती
रात का चाँद अब क्यों पिघलता
धरती अब हरयाली खोती जाती
हैरान हूँ परेशान हूँ मै
जंहा भी जाऊं निराश हूँ
कोई सुनता बहरा बनकर
कोई देखता यंहा अंधा बनकर
गुहार लगाये तो लगाये हम कंहा
जिनको बचना वो ही उजाड़ा बनाते
हैरान हूँ परेशान हूँ मै
जंहा भी जाऊं निराश हूँ
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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