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उस शुन्य में


उस शुन्य में

उस खाली आसमान को मैं निहरता हूँ
बस उसके रिक्त में मैं अपने को पाता हूँ

छटपटाता हूँ बड़बड़ाता हूँ
अकेला अपनों से कुसमुसा सा जाता हूँ

बोलना चाहता हूँ बोल नही पाता हूँ
उस अकेले में पीस सा जाता हूँ

देखता हूँ उन्हें निहरता भी हूँ अपनेपन से
पर उन अपनों की आँखों को मैं कंही नही पाता हूँ

उस शुन्य में निहरते निहरते
मैं अपने बनाये शुन्य से घिर जाता हूँ

ध्यानी प्रणाम

एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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