गुम हो जाते हैं
गुम हो जाते हैं
रस्ते वो जो कभी नजर आते हैं
नजरों का ही तो दोष है
जो पल पल बदल जाते हैं
गुम हो जाते हैं
एक ठरवा तो आता है इस उम्र में
हर कोई सोचने में मजबूर हो जाता है
कुछ तो थोड़ी देर रोक कर बह जाते हैं
कुछ खड़े के खड़े वंही बंध जाते हैं
गुम हो जाते हैं
पकड़े रखना चाहते हैं जितना अपनों को
वो हाथ में रेत की तरह फिसल जाते हैं
आदमी अपने में ही तब घूंट सा जाता है
कुछ निकल जाते हैं कुछ अटक जाते हैं
गुम हो जाते हैं
गुम हो जाते हैं
रस्ते वो जो कभी नजर आते हैं
नजरों का ही तो दोष है
जो पल पल बदल जाते हैं
गुम हो जाते हैं
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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