अनछुये से
अनछुये से
वो जज्बात मेरे
कैसे इजहार करुँ
वो अहसास मेरे
अनछुये से
वो जज्बात मेरे
महसूस ना हो पाया
ना उसे छुपा भी पाया
वो कैसा विशवास
साथ है वो पास मेरे
अनछुये से
वो जज्बात मेरे
बिखरा पड़ा है वो
कोने से अड़ा पड़ा है वो
जोड़ के कैसे रखूं उसे
खुद से तोड़ के रखा है वो
अनछुये से
वो जज्बात मेरे
अँधेरे वो दिख जाता
उजाले में वो जा छुप जाता
आँखें हैं पर नजर नही आता
बंद करते सामने वो हो जाता
अनछुये से
वो जज्बात मेरे
अशांत है चुपचाप यूँ खड़ा
पहाड़ सा वो शांत खड़ा
हलचल बहुत है दिखता नहीं
अशांत सा वो क्यों लगता नहीं
अनछुये से
वो जज्बात मेरे
अंत ही ना उसका सही
मोड़ जाती हो तुम कैसी नदी
पहाड़ों को छोड़कर
क्यों दूर चली जाती हो तुम
अनछुये से,वो जज्बात
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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