मेरा अक्स जब पूछे मुझ से
भटक रहा हूँ मैं अपने में ही आज कल कहीं
भटक रहा हूँ मैं अपने में ही आज कल कहीं
तेरे नूर की रौशनी जो मुझे ना दिख गयी होती
अदम था मै अन्जाम से अपने बेफिक्र यूँ ही
आशिक़ इस आशियाना गर तुम ने ना मुझे बनाया होता
आयन्दा मेरा यूँ गुमराह हो गया होता
जो तुम ने मेरा सोया अक्स ना जगाया होता
मेरा अक्स जब पूछे मुझ से
सवालों के पुलिंदे उसने हर रोज यूँ लगाया होता
आलम इस संसार का अगर उसने ना दिखया होता
उसने अपने दो हाथों से गर उसे ना सजाया होता
आसमानी सौंदर्य का वो असीम सुख ना मैंने पाया होता
विलुप्त हो जाता मै खुद अपने में यूँ ही
तेरा इबादत जो मै तनिक भी अगर भूल गया होता
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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