वो मेरा अपना
माथा टेकना बातें दोहराना
मुझे सब अब निराशा दे गया
नाम का अपना बनकर वो मुझे
जीने का झूठा बहाना दे गया
पत्थर दिल से इनायत की थी मैंने
वो मुझे जुदाई का सहारा दे गया
वो दोस्त था मेरा बस मेरा मुझे
जलन का पूरा सजो सामान दे गया
अंत में हुआ कुछ ऐसा साथ मेरे
वो सबसे ऊँचा मुझे मकाम दे गया
ग़म का अंधेरा ऐसा देकर मुझे वो
मेरे वीराने को वो रोशन कर गया
प्रतिबिंब ढूंढ़ता है अब उसका
जिसने सौंर्दय जिस्म नाकारा कर गया
पहाड़ों का पत्थर बन बैठा हूँ अब मैं
मेरे अहंभाव का वो किनारा बन गया
अस्तित्व की कश्ती में मुझे बिठाकर
काल्पनिक यथार्थ में वो भेद कर गया
मिथ्या जीवन की बस यही पहचान है
उन रस्ते में मुझे वो बेसहारा कर के गया
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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