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अगर मैं पत्थर बन जाऊं



अगर मैं पत्थर बन जाऊं

अगर मैं पत्थर बन जाऊं
क्या काम किसी के मैं आऊं

कोई उछाल दे उस ऊँचे आसमान पर
कोई मुझे पानी की सतह उपर मार दे
दो पल मैं ऐसे किसी के काम आ जाऊं
किसी के मनोरंजन का हिस्सा हो जाऊं

ना व्यर्थ  ही ये जीवन मैं बिताऊं
क्या काम किसी के मैं आ जाऊं

कोई उठाकर मुझे अपने घर ले जाये
मंदिर में बिठाकर वो मेरे भजन गाये
कोई गंगा के धारा से स्नान कराये
ऐसे ही मेरे सारे किये पाप उतर जाये

सार्थकता अब मुझे मेरी मिलेगी कहाँ
अब तक मैं अपनों का ही हुआ कहाँ

अकेले पड़ा पड़ा अब लहराऊँ कहाँ
पत्थर के सीने का दर्द दिखलाऊँ कहाँ
रूह अहसास कराती है बस दर्द का
पर उस मर्ज की दवा मैं खोजों कहाँ

अगर मैं पत्थर बन जाऊं
क्या काम किसी के मैं आऊं

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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