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नरु बिजोला



उत्तराखंड: जब दो भाई एक लड़की से कर बैठे प्यार, ये प्रेम कहानी आज भी करती है रोमांचित !

उत्तराखंड के दो वीर भाई नरु बिजोला की कहानी उत्तराखंड के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आज भी लोकगीतों के माध्यम से नरु-बिजोला की कहानी का याद किया जाता है। इसके अलावा आज भी उत्तराखंड में विभिन्न रंगमंच में माध्यम से नरु-बिजोला की कहानी को यादगार बनाने की कोशिश की जाती है।

 आपने एक प्रसिद्द गीत तो सुना ही होगा-

“ज्ञानसु लगी घुंडु बांदी रांसु नरू बिजोला दुया भाईयों माँ झगड़ा जुटीगी नरू बिजोला।

हम त छौं थाती का पंवार नरू बिजोला।।

मिन त ल्योण बड़ा नथुला वाळी नरू बिजू ला।।”

हम आपको संक्षेप में बताने की कोशिश कर रहे हैं उत्तरकाशी जिले के तिलोथ गांव के दो भाई नरु और बिजुला की कहानी। इन दोनों भाइयों ने आज से करीब छह सौ साल पहले प्यार की खातिर कुछ ऐसा किया, जो प्रेम डगर पर पग धरने वालों के लिए नजीर बन गया। जरूर पढ़िये आगे की पूरी कहानी-

नरु बिजोला की इस कहानी की शुरुहात पंद्रहवीं सदी में हुई। उत्तरकाशी के तिलोथ गांव में रहने वाले दो भाई नरु और बिजुला गंगा घाटी में अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। एक बार दोनों भाई बाड़ाहाट के मेले (माघ मेले) में गए। यहां उन्हें एक युवती दिखी, नजरें मिली और दोनों भाई उसे दिल दे बैठे। युवती भी आंखों ही आंखों में इजहार कर वापस लौट गई।

दोनों भाइयों ने युवती के बारे में पूछताछ की तो पता चला कि युवती यमुना पार रवांई इलाके के डख्याट गांव की रहने वाली थी। उन दिनों गंगा और यमुना घाटी के लोगों के बीच पुश्तैनी दुश्मनी थी। दोनों पक्षों में रोटी-बेटी का संबंध नहीं होता था। मगर दोनों भाइयों ने इसकी परवाह किए बिना डख्याट गांव पहुंचकर युवती का अपहरण कर लिया और उसे कुठार (अनाज रखने के लिए लकड़ी का बक्सेनुमा घर) सहित उठाकर ही तिलोथ लेकर आ गए।

उस दौर में दुश्मन के इलाके में घुसकर ऐसी घटना को अंजाम देना कोई मामूली बात नहीं थी। न तो सड़कें थीं, न वाहन, इसके बावजूद दोनों भाइयों ने बड़ी चतुराई और बहादुरी से इस कार्य को अंजाम दिया। इधर जब डख्याट से युवती के अपहरण की खबर फैली तो यमुना घाटी रवांई के कई गांवों के लोग इकट्ठा हो गए। उन्हें गंगा घाटी वालों का यह दुस्साहस कतई नागवार गुजरा। गंगा घाटी वालों ने जंग का ऐलान कर दिया और सैकड़ों लोग हथियार लेकर नरु-बिजुला से बदला लेने निकल पड़े। गंगा घाटी के सैकड़ों लोग रवांई की सीमा पर ज्ञानसू पहुंच गए और उन्होंने सुबह तक यहीं इंतजार करने का फैसला लिया।

नदी पार रवांई के लोगों के जमा होने की सूचना मिलते ही नरु-बिजुला ने अपने गांव के लोगों को अन्न-धन समेत गुप्त तरीके से डुण्डा के उदालका गांव की ओर रवाना कर दिया। सुबह दोनों भाइयों ने गंगा नदी पर बने झूलापुल काट डाला। सभी लोगां को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाकर नरू बिजूला गांव से 3 किमी ऊपर सिल्याण गांव पहुंचे जहां उन्होंने विशालकाय पत्थरां से एक चबूतरा बना दिया।

ये चबूतरा आज भी इस गांव की थात (सार्वजनिक पूजा, मेले आदि का स्थान) के रूप में है। अपने गांववालों व प्रेमिका को सुरक्षित कर दोनों भाई दुश्मनों से लड़ने पहुंच गए। बताया जाता है कि इस लड़ाई में नरु-बिजुला ने अकेले ही दुश्मनों के दांत खट्टे कर भागने को मजबूर कर दिया। हालांकि उनमें से कई लोग कीमती सामान (जंजीरें, घण्टा, धातु के बर्तन अदि) लेकर गए।

आज भी उनके वंशजों के पास वह सामान निशानी के रूप में है। इस घटना के बाद दोनों पक्षां की पुश्तैनी दुश्मनी भी समाप्त हो गई। नरू-बिजूला ने तिलोथ में अपनी पत्नी के साथ सुखद जीवन जिया। उनके वंशज आज भी तिलोथ व सिल्याण गांव में रहते हैं। तिलोथ में नरु-बिजुला का छह सौ साल पुराना चार मंजिला भवन आज भी है। कभी आठ हॉल व आठ छोटे कक्ष वाले भवन की हर मंजिल खूबसूरत अटारियां बनी थी। इसकी मजबूती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तरकाशी में 1991 में आया भीषण भूकंप भी इसे नुकसान नहीं पहुंचा सका। लेकिन साल दर साल सुरक्षा व संरक्षण के अभाव में भवन जर्जर होता जा रहा है। लकड़ियां सड़ चुकी हैं और दीवारें दरकने लगी हैं।

बालकृष्ण डी ध्यानी
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