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मन के कोने मै छिपा गम जब


मन के कोने मै छिपा गम जब 
अश्रू बनके  नयनों से बहता  है 

दिल मै हजारों उफान उठाते यादों के 
लहरों के थपैडै सा मन को तडपती है 

मन के कोने मै छिपा गम जब 
अश्रू बनके  नयनों से बहता  है 

पतों पर उभरी ओस की तरह 
अपने आप से ही  लडती होयी

मन के कोने मै छिपा गम जब 
अश्रू बनके  नयनों से बहता  है 

बचैन करती होयी उस भोर की तरहां 
शांत वातावरण मै उठाते शोर की तरह

मन के कोने मै छिपा गम जब 
अश्रू बनके  नयनों से बहता  है 

झंक्झोड़ा जाता है मेरे अस्तीत्व को
मुझे मेरे जिन्दा होने का बोधा करता है

मन के कोने मै छिपा गम जब 
अश्रू बनके  नयनों से बहता  है 

एक लकीर सी खीच गयी है मेरे मन मै
हर दम उसे मीटने की कोशिस करता हूँ

मन के कोने मै छिपा गम जब 
अश्रू बनके  नयनों से बहता  है 

सैलाब से उठाते इन आँखों मै
बहा देता है मेरे विचारों को

मन के कोने मै छिपा गम जब 
अश्रू बनके  नयनों से बहता  है 



कवी बालकृष्ण डी ध्यानी
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