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इन्सान क्या तेरा वजूद है

कवी बालकृष्ण डी ध्यानी

इन्सान क्या तेरा वजूद है

इन्सान क्या तेरा वजूद है
हर तरफ तु ही मुजुद है
बुदापे की दहलीज़ पर भी
खिल रहा दिल का फूल है

इन्सान क्या तेरा वजूद है..............

भुला तु उस को बन्दे
जिस ने तुझ को रचा
कायनात को तेरी बन्दे
उसने चार चाँद से सज

इन्सान क्या तेरा वजूद है..............

अंतर मन से भीड़ तू
आपनी हार पर खिला तू
हर कीसी को दहलातु तू
आपने मन को बहलातु

इन्सान क्या तेरा वजूद है............

बादलों से निकल कर
आपनी किरण बिखरा तू
देखर इन्सान की हालत
उनसे ना नजरें चुरा तू

इन्सान क्या तेरा वजूद है............

घनघोर कली घाट छई
आपने अशूं बरसा तू
निर्बलता को आपने
आपने मन से हटा तू

इन्सान क्या तेरा वजूद है............

सत्य और धराम ये दो शास्त्र
इसके करण अब तक बचा तू
जीवन मरण के बीच अड़ा तू
इस लिये अकेला ही खड तू

इन्सान क्या तेरा वजूद है............

कर भारोसा मेरा तू
तेरा कोई न अब दुजा
मुक्ती तू पायेगा अगर
तुने कभी भी मुझ को पूजा

इन्सान क्या तेरा वजूद है
हर तरफ तु ही मुजुद है
बुदापे की दहलीज़ पर भी
खिल रहा दिल का फूल है

इन्सान क्या तेरा वजूद है..............


बालकृष्ण डी ध्यानी
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