१९४७ के वो दंगे
दर्द है जो रिसता रहा
वक़त गुजरता रहा
अंतर पटल पर हरदम
वो उभरता रहा है
दर्द है जो रिसता रहा .............
सन १९४७ का वाक्य
जहन मै घर करता रहा
नज्म मै वो बहता रहा
कीतानो को बेघर करता रहा
दर्द है जो रिसता रहा .............
भाई मै फर्क करता रहा
टुकडे देश के करता रहा
खून की नदीयाँ बहता रहा
देश को वह लुटता रहा
दर्द है जो रिसता रहा .............
दो भागों मै बाँटता रहा
अपनों से ही लड़ता रहा
लज्जा ओ लुटता रहा
मातम मै भी हँसता रहा
दर्द है जो रिसता रहा .............
दंगों का नंगा नाच दीखता रहा
परछाई सा मेरे पीछे आता रहा
हीन्दुस्तान पाकीस्तान
क्यों दिल पुकारता रहा
दर्द है जो रिसता रहा .............
अलग थलग बाँटता राह
अजम हमरी लुटता रहा
दर्द की लकीर खींचता रहा
कंटीली तारें बिछता रहा
दर्द है जो रिसता रहा .............
पानी की बुदबुदस फुटता राह
हवा के परों को जलता रहा
इंसानीयत का नाम मीटता राह
६५ साल मै भी दर्द कहराता राह
दर्द है जो रिसता रहा .............
दर्द है जो रिसता रहा
वक़त गुजरता रहा
अंतर पटल पर हरदम
वो उभरता रहा है
दर्द है जो रिसता रहा .............
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत
कवी बालकृष्ण डी ध्यानी
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