पत्थर से जा उलझा
जिस दिन सर फूटा
तब जाकर पत्थर से पुछा
क्यों आ लगा इस सर पर
ना मीला तुझे कोई दूजा
पत्थर से जा उलझा........
पत्थर इतरा कर
थोड़ा सा सकुचकर अपना मुख खोला
ना बन इतना अब तू भोला
तू ने ही तो पत्थर को तोड़कर
अपना लिये गड्ढा खोदा
पत्थर से जा उलझा...........
टुकड़े होये पत्थरों ने ही
आज तुझे चारों ओर से घेरा
क्या होआ अब जब तुझे
मैंने जरा सा तुझको जा छेड़ा
रहता है तो बना मीनरों मे मेरा
पत्थर से जा उलझा..................
पत्थर ही पत्थर है
जीवन के इस पथ पर
मुश्कील मे है मानव तू
अपनी ही तू करनी पर
सोच जरा अपनी कथनी पर
पत्थर से जा उलझा..................
जिस दिन सर फूटा
तब जाकर पत्थर से पुछा
क्यों आ लगा इस सर पर
ना मीला तुझे कोई दूजा
पत्थर से जा उलझा........
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत
बालकृष्ण डी ध्यानी
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