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हिंदी अपनों से ही हारी


हिंदी दिवस के पूर्व संध्या पर दोस्तों ऐ रचना हिंदी को समर्पित है 

हिंदी अपनों से ही हारी 

आज जंहा जाऊं वंहा हिंदी अपनों से ही हारी सी लगी 
विदेश नहीं स्वदेश में भी ना वो प्यारी सी लगी 

राज्यों राज्यों में बँटा अब देश मेरा हिन्दुस्तान 
टुकड़ों टुकड़ों में हिंदी अब वंहा अपनायी सी दिखी 

राष्ट्र भाषा का देख कर ऐ हाल मन क्षुब्ध हो गया 
हिंदी के बदले अंग्रेजी बोल सुन मन तप्त हो गया 

शीतलता और मधुरता की वो लता खिलेगी कभी 
संस्कृत जननी की जैसे उपेक्षित ना हो जाये अभी 

हिंदी दिवस मानाने, हिंद देश अब बारी क्यों आयी 
राष्ट्र नायक के भाषणों में ही भाषा की ध्वनी दुसरी सुनाई

१४ सितम्बर को ही हे हिंदी क्यों तेरी याद आयी 
३६५ दिनों तू करती रही दोहाई तू करती रही दोहाई 

आज जंहा जाऊं वंहा हिंदी अपनों से ही हारी सी लगी 
विदेश नहीं स्वदेश में भी ना वो प्यारी सी लगी 

एक हिन्दी प्रेमी 

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत

बालकृष्ण डी ध्यानी
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