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जाल मैंने ही बुना


जाल मैंने ही बुना 

रिश्तों के जाल में मै जकड़ता चला गया 
एक जुडा मुझ से ओर एक बिछोड़ता गया 
एक पल खुशी दूजे पल दुःख आता गया 
खुला आसमान काले बादलों से घिरता गया 

पैदा होआ तीन सालों तक उछान्द था मै 
अपनी ही दुनिया मै बहुत ही मस्त था मै 
सब कुछा घिरा घिरा था मुझसे तब हरबार 
एक आवाज पर मेरी सब था सब स्वीकार 

उछान्दता फुरसे कन्हा पर उड़ वो गयी 
बस्ता किताबो ओर कलम का मेल हुआ 
बंधिशों का मेरे साथ शुरू अब वो खेल हुआ 
अब चार दिवारी में बचपन मेरा कैद हुआ 

बचपन छोटा जवानी की सुनहरी भोर हुयी 
सुख प्रेम स्वपनों की तन मन की ओर हुयी 
कंही से हाथ थमा मेरा किसी ने कंही ओर 
भविष्य की रहा पर फिर मोड़ जोर शोर

बंधता गया मै रस्सी से इस तरह अपने आप 
अपना बचपना ढूंडाता हूँ अपने बच्चो के साथ 
होगा भी वही जो हुआ था मेरे साथ कल 
खुद ही काटूंगा उनकी उड़न परवाज आज

बुढ़ापा घिरा एक नया रिश्ता फिर जुडा गया 
बचपन मेरा फिर आंखों से मेरे वो गिरा गया 
दूर अर्थी पर सजा बसा था मेरा संसार आज 
शमशान जलती रही वो बना लाश मै आज 

रिश्तों के जाल में मै जकड़ता चला गया 
एक जुडा मुझ से ओर एक बिछोड़ता गया 
एक पल खुशी दूजे पल दुःख आता गया 
खुला आसमान काले बादलों से घिरता गया 

एक उत्तराखंडी 

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत

१०:३७ प्रातः शुक्रवार १९ /१० /२०१२ 

बालकृष्ण डी ध्यानी
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