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भूल बैठा था मै


भूल बैठा था मै 

बाहर से सजा ये मेरा आशियाना 
अंदर से बिखर, और क्यों टूट पड़ा
अहम था जो बाहर अब तक खड़ा 
ना जाने कौन सी वो कथा बुन रहा 
भूल बैठा था मै अपने आप को 

हँसते मुखड़े पे गम का चेहरा लगा हुआ 
खिलती दरकत थी वो अब पेड़ सुख हुआ 
अपने ही जाल मे आज ऐसे जकड़ा हुआ
अपना ही था अपना ही वो सींचा हुआ 
भूल बैठा था मै अपने आप को 

कभी हरी भरी थी वो टहनीयाँ मेरी 
कभी फुल और फल से मै था लदा हुआ
इतराता रहता उस झोकें की तरह 
उसी झोकें से मै अब घबराता हुआ 
भूल बैठा था मै अपने आप को 

भूल बैठा था ऐ सब दो पल का है
आज उस पल को भी अपने हाथ से खोता हुआ 
अब अकेला खड़ा हूँ चारों और उजालों का साया 
अन्धेरा में अंतर आत्म पर कैसा गर्द छाया हुआ 
भूल बैठा था मै अपने आप को 

बाहर से सजा ये मेरा आशियाना 
अंदर से बिखर, और क्यों टूट पड़ा
अहम था जो बाहर अब तक खड़ा 
ना जाने कौन सी वो कथा बुन रहा
भूल बैठा था मै अपने आप को 

एक उत्तराखंडी

बालकृष्ण डी ध्यानी 
देवभूमि बद्री-केदारनाथ 
मेरा ब्लोग्स 
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com 
मै पूर्व प्रकाशीत हैं -सर्वाधिकार सुरक्षीत 

बालकृष्ण डी ध्यानी
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