विरला
कुछ लोग होते ही हैं ऐसे
दुःख पराये देख रोते हैं ऐसे
विरला भाव होता है सब में
कोई उसे व्यापक सोच देता है
कोई उसे संकोचित कर देता
कुछ दो नीर बाहा कर
किनारे वो हो जाते है
विरला उस के दुःख में
गोते खाकर उसे पार लगते हैं
खुद को पीड़ा देकर
विरला सुख हरी का पाते है
गीले आंसूं में किसी के वो विरला
हंसी की तरहा खिल खिलते हैं
कट जाने का भय नही
निडर पथ सदैव सत कर्म में बड़ाते हैं
वो ही विरला है वो मानव
स्वंय के करीब नया विश्व बनाते हैं
कुछ लोग होते ही हैं ऐसे
दुःख पराये देख रोते हैं ऐसे
विरला भाव होता है सब में
कोई उसे व्यापक सोच देता है
कोई उसे संकोचित कर देता
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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