यूँ ही जब देखा
यूँ ही जब देखा मैंने ताजमहल
एक एक कौंदा तब मेरे मन एक सवाल
ये ही वो मकबरा है जंहा मुमताज सोयी है
मरने के बाद खुद को इस हाल में देखा कितना रोई है
जाने बाद ही ताज को इस प्रेम की याद आयी है
जीवत थी तब तो ताज को कभी मुमताज नजर ना आयी है
खो दिया बाद कब्र में यूँ गड़वा दिया ,
मरने के बाद दिया सब तो मुझे सरताज तो फिर क्या दिया
संग मर मर के श्वेत चादर के पत्थर ओढ़ कर यूँ ही
किसी के खून से कांटे हाथो का लहू धो दिया तो क्या दिया
खुशी मनाती होगी या मातम मुमताज आज कंही या यंही
सात आश्चर्यों में गिना तुमने ऐ फैसला तुम पर छोड़ दिया
यूँ ही जब देखा मैंने ताजमहल
एक एक कौंदा तब मेरे मन एक सवाल
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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