मंद चला जा रहा है वो
कुंठित है जड़ ,
निष्प्रभ हो रहा मन
मूर्ख क्यों हो रहा उदास है
कमज़ोर है मन
दुर्बल तन के साथ
निर्बल बल लेके आज
अल्पशक्ति उसकी क्षीण
सोच बनी बिलकुल संकीर्ण
नीचा क्यों हो रही वो आवाज
तल के पास बैठा अकेला
छोटा और धीमा वो साँस बसेरा
बिना चमक तारा दूर देखो आज
कमसमझ का साथ था
साँड़ सा कुंद वो उसका काज था
कर्कश असभ्य वो ताज था
आलसी सुस्त चलन समीप
निष्क्रिय निठला थी वो डगर
नरम एकांतप्रिय एकांत की बात थी
संकुचित विचारधारा सहारा
भद्र सुशील कुलीन सब किनार
सीसे के सामान्य चला वो मंद
कुंठित है जड़ ,
निष्प्रभ हो रहा मन
मूर्ख क्यों हो रहा उदास है
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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