पहाड़ मेरा
बस अकेला ही रहा वो
था घर तेरा मुसफ़िर-खाना सा वो
तेरा भी आना हुआ बस जाना सा वो
दो पल बस अब ठिकाना सा वो
पहाड़ मेरा बिखरा हुआ....................
टूटा फूटा रूठा पड़ा वो
गगन आशियान सा छुटा पड़ा वो
घास सुखे पड़े पड़े ललहाये सा वो
जीवन से बही पड़ी धारा वो
पहाड़ मेरा बिखरा हुआ....................
चूहे बिल्ली से अब सजा वो
अपने से कुछ इस तरह जुदा हुआ वो
रहकर भी अपना अस्तिव खोजे वो
अब भी अपनों के लिये रोये वो
पहाड़ मेरा बिखरा हुआ....................
कद अपना खुद सम्भाले वो
अपने से अपनों को पुकारे वो
कोई सुन रहा अकेला चाला जा रहा वो
आंसूं दिल ,तन्हाई सा वो
पहाड़ मेरा बिखरा हुआ....................
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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