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एक वृक्ष


एक वृक्ष

एक वृक्ष
अकेला खडा था
बरसों से उस तट पर
जो अब सुखा पड़ा था

कभी उस तट पर
कल कल की गूंज गूंजा करती थी
हरियाली चादरें फ़ैली होती थी

कभी लहलहाते
वो करीब और पास साथ मेरे
वो जंगल अब उन पेड़ों से
विहीन पडा था

सब और सुखा पड़ा है
बादल अब जल विरहा में घूम रहा है
कभी होते थे काले अब स्वेत सा दिख रहा है

अब अकेला खडा हूँ
अपनो को खत्म होते
अब अपने को भी खत्म होते

एक वृक्ष
अकेला खडा था
बरसों से उस तट पर
जो अब सुखा पड़ा था

एक उत्तराखंडी

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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