वो दो सहारे
सूना था
वो दो किनारे
वीराना था
वो दो सहारे
खड़ा था अकेले
वो त्यागा हुआ
बेमरम्मत
इमारत का ढांचा हुआ
ग़ैर-आबाद थी
उसकी महफिल लगी
उजाड़ा दूर तक
खाली सा वो हुआ हुआ
परित्यक्त बना
मूक सा वो तना
निर्जन कभी रद्दी
में उसे बेचा हुआ
बसा हुआ वो
वियुक्त हुआ वो
विरक्त था वो
ना दिलचस्पी रखनेवाला वो
असहाय था
मन्दी से बिलकुल पीटा हुआ
खींचा था वो
अपने से लगा हुआ
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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