वो लकड़ी का दरवाज
एकटक
वो चरचरानेवाला
दरवाज
चीं-चीं कर के
थम सा गया
कर्णकटु
तेज़ चीकवाली
ध्वनी छोड़ गया
वो मेरे घर की लकड़ी का दरवाज
तेज़ था
वो कभी माध्यम
चीख़ का स्वर
कोलाहल हुआ कुछ पल
संबंध जोड़ गया
अभिमेष कर गया
दिल के केंद्रीभूत
में उतर गया
वो मेरे घर की लकड़ी का दरवाज
ऊंचे दर्जे का था
उसका वास्तुकला
उत्तम दर्जे का था
टिकवा वो बना
उकता रहता इंतजार में
मेरे लिये वो हरबार
घोड़े की नाल
उसके देहली पे था
वो इस तरहा ठोका हुआ
वो मेरे घर की लकड़ी का दरवाज
कठोर था
जोड़ा था वो
हँसने वाला
कभी वो रोने वाला
इंतजार की
घडीयाँ गिनने वाला
अनिमेष ही आज
ढालवां सा हो गया
वो मेरे घर की लकड़ी का दरवाज
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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