व्यर्थ ही
सोचता हूँ व्यर्थ ही अब मै
जो होता है वो तो होता है
दर्द बिछाकर अगर रखा है
तो कोई हंसता है तो कोई रोता है
तसल्ली देने में लगे हैं सब
खोने क्या और क्या पाने में रखा है
मील जाती मंजील भी बस
कोई अपने में कोई बाहर खोजने में लगा है
हारे हारे फिरते हैं सब यंहा पर
फिर भी सब जीत का जश्न मनाने में लगे हैं
अचरज होता है ये आडम्बर देखकर
बस सब पर धर्म रंग चड़ने लगा है
आने से पहले ना पत्ता था ना जाने के बाद पत्ता होगा
इस जीवन में ही किसी का राम किसी अल्लाहा होगा
सब एक हैं तो अनेक क्यों लगते हैं
मानव हैं सब के सब इंसान कम लगते हैं
सोचता हूँ व्यर्थ ही अब मै
जो होता है वो तो होता है
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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