हर बात में जी
हर बात में जी
जैसे घुली हो लस्सी में घी
मीठा रस अब ऊंचा ताना
मर्म सीधा छाती में जागा
जी शब्द अब उभर आता
दिल को अब वो केंद्र करती
सीधी रेखा मध्य भाग से उभरती
जीभ जिव्ह संग लपलपाती
मधुमेह का वो लेप लगाती
जी अब वो आवाज लगती
आत्मा, प्राण, रूह का वासा
मेहनत, काम से अब जी भागा
मनोरथ, मुराद का वो मनमौजी
गुड-चीनी कि बनी वो ढेली
जी चलने लगी अब वो मर्जी
व्यक्ति अब विशेष हुआ
माननीय और वो आदरणीय हुआ
श्रद्धेय संमानित इज़्ज़तदार है जी
महान कुलीन सज्जन भद्र में बसा है जी
हर काज में रचा है जी जी
हर बात में जी
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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