दो दिन
दो दिन इंतजार करने में गुजर गये , दो दिन दुःख में
अब हिसाब कर रहा हूँ कितना बाकी रह गये हैं दरवाजे पर कि गर्मियों के
सौ बार चाँद आया , तारे खिले , रात मदहोश हुयी
रोटी का चाँद खोजने में जिंदगी यूँ ही बर्बाद हो गयी
ये हाथ मेरे सर्वस्व , गरीबी का कर्जदार ही रहे
कभी ये गर्दन ऊपर तनी , कभी कटी अवस्था में मिली
हर घड़ी आंसूं बहे नही , ऐसे भी क्षण आये
तभी आंसूं दोस्त बनके सहायता के लिये भाग कर आये
दुनिया का विचार हर घड़ी किया विश्वास करो जगमय मै हुआ
दुःख सहें कैसे , फिर जियें कैसे , ये पाठशाल नही सिखा
आगभट्टी में तपे फौलादा जैसे जीवन अच्छा तपा
दो दिन इंतजार करने में गुजर गये , दो दिन दुःख में
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
में पूर्व प्रकाशित -सर्वाधिकार सुरक्षित
बालकृष्ण डी ध्यानी
0 टिप्पणियाँ