रात के आगोश में,वो गुजरा समा
रात के आगोश में,वो गुजरा समा
दिया जलता रहा,दिल से उठता रहा धुंआं
रात के आगोश में,वो गुजरा समा
पलकों में ना नींद थी,ना किसी के आने कि चाह
एक-टक देखती रही थी,दूर वो राह,जाने क्यों निगाह
रात के आगोश में वो गुजरा समा
साँसों का बस शोर था, और वो गुमसुम सितम
रातरानी मदहोश थी, गिरी बरसात यंहा ,पर उसे होश कंहा
रात के आगोश में वो गुजरा समा
कारंवा सदियों से,ऐसे ही बढ़ता रहा
पर्वतों पर रोज आँखें, बैठी चुप-चाप,तकती कदमों के निशाँ
रात के आगोश में वो गुजरा समा
खाली खाली सा लगा , वो चहुँ ओर उजड़ा हुआ
बंधी थी बचपन ने डोर, जवानी वो, डोर खोल दूर चला
रात के आगोश में वो गुजरा समा
रात के आगोश में,वो गुजरा समा
दिया जलता रहा,दिल से उठता रहा धुंआं
रात के आगोश में,वो गुजरा समा
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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