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यूँ ही बैठे बैठे


 यूँ ही बैठे बैठे

यूँ ही बैठे बैठे
दो पंक्ति लिखने का मन हुआ
लेकिन क्यॊं आज
मुझे कुछ भी अनुभूति नही हो रही
एक शून्या सा छाया
उन आँखों की पुतली में
दिल के उस खाली पटल पे भी
आज कुछ कम हलचल है
सूना सा है शरीर का कमरा
धमनियों का बहाव धीमा है
सांसें भी कुछ रोक रोक चल रही है
फिर भी ना जाने क्यों
मै उन कल्पनाओं में नही खो पा रहा हूँ
ना दिन है ना ही रात है
ना ही शाम ना ही सुबह
समय का वक्त भी
ठीक ठाक नही लगा पा रहा हूँ
ना गम ना ख़ुशी का ठिकाना
ना ही महफिल है ना वीराना
फिर भी ना जाने क्यों मै फ़साना नही लिख पा रहा हूँ
रिश्तों में अपनों में परायों में
फंसा हूँ उन मकड़ी के जालों में
आजाद हूँ फिर भी कैद हूँ
बहता पानी सा , सुखा जमीन पर
गीला है पर हरियाली ना दे पा रहा हूँ
दो पंक्ति लिखने का मन हुआ
लेकिन क्यॊं आज
मुझे कुछ भी अनुभूति नही हो रही
यूँ ही बैठे बैठे

एक उत्तराखंडी

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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