जंहा ना जाता रवि,वंहा पे जाता कवि
जंहा ना जाता रवि,वंहा पे जाता कवि
ये बात कितनी सच है जरा कल्पना में गोते खा कर देख लो
खुद ब खुद ही जान लोगे
कलम कि ताकत पहचान लोगे
सागर कि लहर लहर या पर्वतों का हो शहर
आकाश हो जमीन या हो चंचल पवन चितवन
सुख दुःख दर्द और ख़ुशी का हो जंहा संगम
घर कोठ आंगन रिश्तों का हो जंहा मिलन
आंसूं कि बहती धार ये कहेगी तुमसे यंहा भी आया था कवि
जंहा ना जाता रवि,वंहा पे जाता कवि
ये बात कितनी सच है जरा कल्पना में गोते खा कर देख लो
खुद ब खुद ही जान लोगे
कलम कि ताकत पहचान लोगे
कौन सा ऐसा कोना मुझे तुम दिखला दो
मेरी बातों को मेरे मुंह में ही तुम झुठला दू
शागिर्द बन जाऊँगा मै आप का सदा के लिए
बसंत पतझड़ बहार या वो विराना दिखला दो
हर उम्र हर पथ हर मील हर मंजिल से पूछा लो क्या देखा है कवि
जंहा ना जाता रवि,वंहा पे जाता कवि
ये बात कितनी सच है जरा कल्पना में गोते खा कर देख लो
खुद ब खुद ही जान लोगे
कलम कि ताकत पहचान लोगे
अपने में वो खुद पहले वो महसूस करता है
हर आनंद हर जख्म अपने अक्षरों से फिर वो सी लेता है
लिखता है जब भी याद कर माँ सरस्वती के चरणों में
अथाह भ्रमांड का सागर कि वो तह पा लेता है
बस अब तुम अपने से ही खुद से खुद कह दो
जंहा ना जाता रवि,वंहा पे जाता कवि
ये बात कितनी सच है जरा कल्पना में गोते खा कर देख लो
खुद ब खुद ही जान लोगे
कलम कि ताकत पहचान लोगे
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
में पूर्व प्रकाशित -सर्वाधिकार सुरक्षित
बालकृष्ण डी ध्यानी
0 टिप्पणियाँ