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वो खाली खाली


वो खाली खाली

कितना भी समेट ले रह जाता है वो रह जाता है थोड़ा बाकि
समेट समेटकर सागर क्यों रह जाता है वो खाली खाली
कितना भी समेट ले रह जाता है ......

भरी गगरी लचक लचकर आखिर छलक ही वो जाती है
किस्मत भी वैसे तेरी यूँ ही पल पल बदल वो जाती हैं
कितना भी समेट ले रह जाता है.....

रात सितारों से भरा वो आसमान सवेरे खाली सा नजर आता हैं
मन का वो खाली कोना बार- बार धुर्व तार सा मुझको राह दिखता है
कितना भी समेट ले रह जाता है.....

खाली सा है सब यंहा पार आ के सपना सब बिखरा बिखरा
मिल अगर जाये सब कुछ टूट छूट जाता पीछे कोई वो खाली अपना
कितना भी समेट ले रह जाता है.....

कितना भी समेट ले रह जाता है वो रह जाता है थोड़ा बाकि
समेट समेटकर सागर क्यों रह जाता है वो खाली खाली
कितना भी समेट ले रह जाता है ……

एक उत्तराखंडी

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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