इस दारू ने
इस दारू ने इस दारू ने
इस दारू ने खराब किया मेरे पहाड़ को
उजाड़ा किया मेरे घर-बार को
इस दारू ने इस दारू ने
इस दारू ने
कड़वी है ,ये कड़वाहट ही घुलती है
अपनों को इस हाल में वो छोड़ती है
बस रोती रहती आंसूं धारा
इस दारू ने इस दारू ने
इस दारू ने
जो यंहा दिखे वो झूल रहा
अपना कर्म अपना धर्म वो भूल रहा
पड़ा बेहोश वो राहों में
इस दारू ने इस दारू ने
इस दारू ने
बच्चे बूढ़े और जवान
मौक मिले ना मिले पहले इसका स्थान
खुले आम तीज त्योहारों ,बारातों और दुकानों में
इस दारू ने इस दारू ने
इस दारू ने
इस दारू ने इस दारू ने
इस दारू ने खराब किया मेरे पहाड़ को
उजाड़ा किया मेरे घर-बार को
इस दारू ने इस दारू ने
इस दारू ने
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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