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कोई


 कोई

अमेठी को भुला मैं अमेठी मुझको भूल गयी
कह देना कोई आया था दो नग्मे सूना के चला गया
कोई पागल समझता है कोई मजनू समझता है

कोई पागल समझता है कोई मजनू समझता है
दिखया जो अमेठी ने आईना अब मेरा दिल भी डरता है
कोई पागल समझता है कोई मजनू समझता है

मुझे अर्श की चाहत थी ला के फर्श पे मारा है
लिखी मैंने थी जो कविता फिर वक्त ने उसे दोहराया है
कोई पागल समझता है कोई मजनू समझता है

खड़ा उस दोहराये पर आज फिर खुद को झुठला रहा हूँ मैं
मई की गर्मियों में अकेला सावन के आंसूं बहा रहा हूँ मैं
कोई पागल समझता है कोई मजनू समझता है

ख़ास बनने की चाह थी ठीक से आम भी ना बन पाया मै
सुबह का भुला था जैसे कोई मैं फिर अपने घर लौट आया मैं
कोई पागल समझता है कोई मजनू समझता है

एक उत्तराखंडी

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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